मंगलवार, 19 सितंबर 2017

कविता- क्या प्रेम भी डरता है?

आशुतोष दुबे की कविता- पहले पहल कौन करे की पंक्ति "प्रेम दूरी से नहीं देरी से डरता है" से प्रेरित होकर लिखी गयी कविता।

अब तक पढ़ा था,
प्रेम की किताबों में,
प्रेम मन में साहस भरता है,
उसी मन में एक सवाल उठा है,
क्या प्रेम भी किसी से डरता है?
शायद हाँ या शायद नहीं,
या शायद मुझे पता नहीं।
शायद इसका कोई जवाब नहीं होगा,
इसका जवाब शायद शायद ही होगा।
प्रेम दूरी से नहीं,
पर देरी से डरता है।
प्रेम बेवफाई से तो कभी नहीं,
पर उसकी मजबूरी से डरता है।
प्रेम के बदले प्रेम नहीं मिला तो?
बस इसी ख़यालात से डरता है।






पानी जैसी लड़की हो तुम....!

आकाश में तैरती बदली,
जैसी हो तुम,
जहाँ उम्मीदों की भाप पिघल कर,
विश्वास की बूंदे हो जाती है,
सजा रखा है सपनों को,
खुले आसमान में,
निकल जाती हो इन्हें लेकर,
एक अनजान देश,
हवाओं के सहारे कहीं दूर,
टकरा जाती हो पहाड़ों से,
अपनी जिद लेकर,
और खिल जाता है,तुमसे
सबसे ऊंचा पहाड़ भी।

पहाड़ों से उतरती धार,
जैसी हो तुम,
धीरे-धीरे नीचे आती,
छोड़कर अपने घर को,
जिंदगी के सारे सवाल,
लपेटकर पत्थरों में,
ले आती हो,
सफर में अपने बना देती हो,
उन्हें गोल,और
खुरदराहट कम कर देती हो,
तब मन मोह लेते है ये सवाल,
रच देती हो इस तरह,
एक नया संसार।

मैदानों में बहती नदी,
जैसी हो तुम,
गुजरती जाती हो,
अकेले ही,
शहरों के करीब,
पुलों के नीचे से,
होना जानती हो तुम
जंगलों के साथ भी,
उसकी जड़ों में पहुँचकर,
बन जाती हो फूल-पत्तियाँ,
अपना शेष छोड़कर पीछे,
तुम चुनती हो आगे बढ़ना,
स्वयं खो जाती हो,
आखिर में, तुम
सागर हो जाती हो।

समुद्र में उठती लहरों,
जैसी हो तुम,
उठती हो बार-बार,
ऊपर तक,
दिखाती हो अपना अक्स,
खुशी से झूमती जाती हो,
चली जाती हो किनारों तक,
उमंगों पर होकर सवार,
और छूकर जमीं,
लौट आती हो,
वक़्त के ताप में,
छोड़ देती हो शरीर,
हो जाती हो अदृश्य,
बनकर भाप।

आकाश में बदली हो तुम,
पहाड़ों से निकलती धार हो,
मैदानों मे बहती नदी हो,
समुद्र में लहर हो तुम,
पर भूलना मत,
ये सफर के हिस्से हैं,
एक दिन ये सब भी पूछेंगे,
इन हिस्सों में क्या हो तुम?
तुम कहना ,पानी हो तुम,
पानी जैसी लड़की हो तुम।।

बुधवार, 19 जुलाई 2017

my last day in benaras........

 प्रिय बनारस,
6 जून, 2017 ये केवल एक तारीख नहीं है। एक तरफ ये वो दिन है जब मैं यहाँ पर आखरी बार हूँ, वहीं दूसरी तरफ ये एक नई शुरुआत लिए हुए हैं। एक तरफ तीन बरस का सुनहरा अतीत है,और एक तरफ बेहतर भविष्य की योजनाएं। जब मैं यहां आया था तो बस अपनी पढ़ाई का एक हिस्सा पूरा करने आया था...और...और ये आज पूरा हो चुका हैं, इसके लिए खुश हूँ।
तो फिर ऐसा क्या है...जो ये सब लिखनें को मजबूर कर दे रहा???
इसके पीछे कोई एक वजह नहीं बल्कि वजहों का पूरा समूह है,और वो समूह है...तुम....बनारस।
बनारस तुम मेरे लिए बस एक शहर नहीं हो.......तुममें शामिल है यहाँ के घाट जिनके साथ मैंने अपना सुख-दुख,प्यार-दर्द,हंसना-रोना,सफलता-असफलता सबकुछ साझा किया है।
प्यार भी यहीं मिला हैं तो कभी दिल भी यहीं टूटा हैं।
सैकड़ो लोगो की भीड़ से घिरा यहाँ पर नुक्कड़ भी किया है,वहीं बहुत बार सीढ़ियों पर बैठकर सारी रात अकेले ही गुजार दी हैं।
.........तुममें शामिल है कुछ बेहतरीन और प्यारे लोग जिनसे मैं यहीं पे मिला और उनका होकर रह गया। ये लोग बनारस के ही हैं या मेरी तरह यहाँ पर एक छात्र के रूप में आये। अगर ये लोग न होते यहाँ तो मैं कभी तुम को अपना दूसरा घर नहीं कह पाता।
.......तुममें शामिल है लंका जो अड्डा हैं , विश्वविद्यालय परिसर जो मेरे लिए स्वर्ग है,जहाँ सुबह शांत और शाम खूबसूरत होती है; और इसी परिसर में शामिल हैं.....ओमकार नाथ ठाकुर प्रेक्षागृह,जहाँ से मैंने रंगमंच के बारें में सीखना शुरू किया; विश्वनाथ मंदिर,जहाँ भोलेनाथ से डाइरेक्ट बात होती थी; बिरला हॉस्टल, वो जगह जहाँ दिनभर हर जगह भटकने के बाद थक-हारकर रात में आते तो ऐसा लगता घर आ गए हों; केंद्रीय पुस्तकालय, जहाँ मेरा सबसे ज्यादा समय गुजरा; कला संकाय, मधुबन,और महिला महाविद्यालय।
.........तुममें शामिल हैं सारनाथ वह जगह जो बुद्ध और मुझे और करीब ले आया; नागरी नाटक मंडली, इस जगह का महत्व रंगमंच से जुड़े लोग मुझसे बेहतर जानते हैं, स्पंदन,सरस्वती पूजा,कृष्ण-जन्मआष्ट्मी, मालवीय जयंती,सुबह-ए-बनारस, गंगा आरती,घाट-संध्या, शिवरात्रि,होली और.......तुम्हारी संकरी-लंबी गलियाँ।
यहीं सब मिलकर एक वजह बनते है,जिसे कहते हैं......बनारस।
.....तो इस आखरी दिन की शुरुआत हुई बारिशों की बूंदों से, उस वक़्त हम फ्रेंच भाषा का पेपर दे रहें थे। पर पेपर से ज्यादा ध्यान हॉस्टल में खुले में सूख रहे कपड़ो का था,तो जल्दी पेपर खत्म करके भागे बारिश में ही.....और इसका मजा ही कुछ और होता है। उसके बाद शुरू हुई सबसे भयानक प्रक्रिया जिसे नो ड्यूस कहा जाता है....बारिश और ये दोनो अगले तीन घंटो तक साथ-साथ चलते रहे। और इसी बीच vt के छोले-समोसे और चाय भी चलता रहा......और चलती रही एक बाइक मैं और शिवम् चौबे इस बारिश में पूरा कैम्पस नाप रहे थे।
आखिरकार बारिश खतम हुई और और नो ड्यूस भी पूरा हुआ। उसके बाद सबकुछ समेटने और कुछ बैग्स में भरने का सिलसिला शुरू हुआ। फिर कुछ मित्र ऐसे भी थे मुझसे भी पहले जाने को थे, तो उन्हें छोड़ के आया लंका तक और फिर खुद के जाने की तैयारी करने लगा। शाम को अचानक से सबकुछ मोह-माया लगने लगा। दिल और दिमाग में जंग चलने लगी। दिमाग से सोचा तो समझ में आने लगा की ये सब जिंदगी का एक हिस्सा हैं लेकिन सिर्फ हिस्सा ही हैं पूरी ज़िन्दगी नहीं। दिल कह रहा था कि....अरे ऐसा भी क्या है फ़ेसबुक, व्हाट्सएप्प तो है ही सब से बात करने के लिए और अभी जा रहे तो क्या साल में दो बार तो पक्का ही बनारस आएंगे। खैर........रात का भोजन मोर्वी हॉस्टल में किया और निकल पड़े मैं,शिवम् और उत्कर्ष अस्सी घाट इस दिन को और बेहतर और यादगार बनाने के लिए। वहाँ ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी,सबकुछ शांत लग रहा था। पर ये शांति हमें मंजूर आज मंजूर ना थी.....तो उत्पात मचाने हम तीनों कूद गए गंगाजी में,और जब थक गए तो लौट आये वापस अपने हॉस्टल। इन सबके बाद रातभर बातचीत का दौर चलता रहा और साथ है पैकिंग भी होती रही। रात के आखरी पहर में जब सब कुछ वीराना और चुप सा था........मैं भी चुपचाप सो गया। आखरी पलों में खामोशी ही सबसे ताक़तवर भाषा होती है शायद। इसीलिए मैं,तुम, दोस्त सब खामोश थे।
और जिस तरह तीन साल पहले मैं एक सुबह अचानक इस शहर में चुपके से आ गया था.....उसी तरह अचानक एक सुबह चुपके से चला भी गया, बिना किसी से मिले.... क्योंकि जाते हुए मिलना दु:खद होता है,और मैं ये नहीं चाहता।
और.........इस समय जब मैं ये सब लिख रहा हूँ,ट्रेन में हूँ जो दौड़ रही हैं मेरे गावँ की तरफ।
सबकुछ तेजी से पीछे छूट रहा है...पेड़,इमारतें,बी एच यू ,घाट,लंका,दोस्त,प्यार,और तुम भी पीछे छूट रहें हो बनारस....!
और बस बाकी रह गया है ये पेड़,इमारतें,बी एच यू ,घाट,लंका,दोस्त,प्यार.....और तुम बनारस।
अलविदा बनारस।
-विकास रावल ।