आकाश में तैरती बदली,
जैसी हो तुम,
जहाँ उम्मीदों की भाप पिघल कर,
विश्वास की बूंदे हो जाती है,
सजा रखा है सपनों को,
खुले आसमान में,
निकल जाती हो इन्हें लेकर,
एक अनजान देश,
हवाओं के सहारे कहीं दूर,
टकरा जाती हो पहाड़ों से,
अपनी जिद लेकर,
और खिल जाता है,तुमसे
सबसे ऊंचा पहाड़ भी।
पहाड़ों से उतरती धार,
जैसी हो तुम,
धीरे-धीरे नीचे आती,
छोड़कर अपने घर को,
जिंदगी के सारे सवाल,
लपेटकर पत्थरों में,
ले आती हो,
सफर में अपने बना देती हो,
उन्हें गोल,और
खुरदराहट कम कर देती हो,
तब मन मोह लेते है ये सवाल,
रच देती हो इस तरह,
एक नया संसार।
मैदानों में बहती नदी,
जैसी हो तुम,
गुजरती जाती हो,
अकेले ही,
शहरों के करीब,
पुलों के नीचे से,
होना जानती हो तुम
जंगलों के साथ भी,
उसकी जड़ों में पहुँचकर,
बन जाती हो फूल-पत्तियाँ,
अपना शेष छोड़कर पीछे,
तुम चुनती हो आगे बढ़ना,
स्वयं खो जाती हो,
आखिर में, तुम
सागर हो जाती हो।
समुद्र में उठती लहरों,
जैसी हो तुम,
उठती हो बार-बार,
ऊपर तक,
दिखाती हो अपना अक्स,
खुशी से झूमती जाती हो,
चली जाती हो किनारों तक,
उमंगों पर होकर सवार,
और छूकर जमीं,
लौट आती हो,
वक़्त के ताप में,
छोड़ देती हो शरीर,
हो जाती हो अदृश्य,
बनकर भाप।
आकाश में बदली हो तुम,
पहाड़ों से निकलती धार हो,
मैदानों मे बहती नदी हो,
समुद्र में लहर हो तुम,
पर भूलना मत,
ये सफर के हिस्से हैं,
एक दिन ये सब भी पूछेंगे,
इन हिस्सों में क्या हो तुम?
तुम कहना ,पानी हो तुम,
पानी जैसी लड़की हो तुम।।